Monday, June 4, 2018

"भारत का नेपोलियन" - समुद्रगुप्त

समुद्रगुप्त (राज्य 335-376 ई.) गुप्त राजवंश का चौथा राजा और चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तरधिकरी था। चन्द्रगुप्त के अनेक पुत्र थे पर गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ-चढ़कर था। लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था।
सम्भवतः चंद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में ही समुद्रगुप्त को राज्यभार सम्भलवा दिया था। प्राचीन आर्य राजाओं की यही परम्परा थी। चंद्रगुप्त के इस निर्णय से उसके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने समुद्रगुप्त के विरुद्ध विद्रोह किया। इनका नेता 'काच' था। प्रतीत होता है, कि उन्हें अपने विद्रोह में सफलता भी मिली। 'काच' नाम के कुछ सोने के सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं पर काच अधिक समय तक समुद्रगुप्त का मुक़ाबला नहीं कर सका। समुद्रगुप्त ने शीघ्र ही भाइयों के इस विद्रोह को शान्त कर दिया, और पाटलिपुत्र के सिंहासन पर दृढ़ता के साथ अपना अधिकार जमा लिया। काच ने एक साल के लगभग तक राज्य किया। काच नामक गुप्त राजा की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उसका नाम 'सर्वराजोच्छेता' विशेषण के साथ दिया गया है। अनेक विद्वानों का मत है, कि काच समुद्रगुप्त का ही नाम था। ये सिक्के उसी के हैं, और बाद में दिग्विजय करके जब वह 'आसमुद्रक्षितीश' बन गया था, तब उसने काच के स्थान पर समुद्रगुप्त नाम धारण कर लिया था।

                                     गरुड़ स्तंभ के साथ समुद्रगुप्त का सिक्का

समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए कई युद्ध किये। इस विजय यात्रा का वर्णन प्रयाग में अशोक के प्राचीन स्तम्भ पर बड़े सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण है। सबसे पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं को जीतकर उसने अपने अधीन किया । इनके नाम हैं—अहिच्छत्र का राजा अच्युत, पद्मावती का राजा नागसेन और राजा कोटकुलज। सम्भवतः अच्युत और नागसेन भारशिव के वंश के साथ सम्बन्ध रखते  थे। यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, पर कुछ प्रदेशों में इनके छोटे-छोटे राजा अब भी राज्य कर रहे थे। गुप्तों के उत्कर्ष के समय इन्होंने चंद्रगुप्त प्रथम जैसे शक्तिशाली राजा की अधीनता में 'सामन्त' की स्थिति स्वीकार कर ली थी। पर समुद्रगुप्त और उसके भाइयों की गृहकलह से लाभ उठाकर ये अब फिर से स्वतंत्र हो गए थे। यही दशा कोटकुल में उत्पन्न राजा की भी थी, जिसका नाम प्रयाग के स्तम्भ की प्रशस्ति में मिट गया है। 'कोट' नाम से अंकित सिक्के पंजाब और दिल्ली में उपलब्ध हुए है। इस कुल का राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था। सबसे पूर्व समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया, और इन विजयों के बाद बड़ी धूमधाम के साथ पुष्पपुर पाटलिपुत्र में पुनः प्रवेश किया।
                 उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्ध है उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति`(सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित लेख)  के नाम से जानी जाती है। आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात् उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद - स्तम्भ पर मिलते हैं - अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल। इस महान् विजय के बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी।शिलालेखों में उसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता' (देर से न हुए अश्वमेध को फिर से प्रारम्भ करने वाला) और 'अनेकाश्वमेधयाजी' (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है। इन अश्वमेधों में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही अनुसरण नहीं किया गया था, अपितु इस अवसर से लाभ उठाकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था। प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में यज्ञीय अश्व का भी चित्र दिया गया है। ये सिक्के अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किए गए थे। इन सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है - 'राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्यः'—राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है।
                                                                 
                                                                 प्रयाग प्रशस्ति
 अतः "भारत का नेपोलियन" कहा जाने वाला समुद्रगुप्त असाधारण योद्धा, समर विजेता एवं अजातशत्रु था । वह युद्धक्षेत्र में स्वयं वीरता और साहस के साथ अपने शत्रुओं से मुकाबला करता था । उसने भारत को एकता के सूत्र में बांधने का महान् कार्य किया था । छोटे राज्यों के पारस्परिक वैमनस्य को रोकते हुए उसने एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की थी ।
                                          अपने चरमोत्कर्ष के समय गुप्त साम्राज्य

Monday, April 30, 2018

वैदिक काल - 1

सिंधु सभ्यता के पतन के बाद जो नवीन संस्कृति प्रकाश में आई  उसके विषय में हमें सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम 'वैदिक काल' अथवा " वैदिक सभ्यता " के नाम से जानते हैं। इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य लोग थे। यहाँ आर्य शब्द का अर्थ- श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट, स्वतंत्र आदि हैं।आर्यो के आगमन के विषय में विद्धानों में मतभेद है। विक्टरनित्ज ने आर्यो के आगमन की तिथि  2500 ई.पू. निर्धारित की है जबकि बालगंगाधर तिलक ने इसकी तिथि 6000 ई.पू. निर्धारित की है। मैक्समूलर के अनुसार इनके आगमन की तिथि 1500 ई.पू. है। आर्यो के मूल निवास के सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रमाणिक मत आल्पस पर्व के पूर्वी भाग में स्थित यूरेशिया का है। वर्तमान समय में मैक्सूमूलन ने मत स्वीकार्य हैं।

आर्यों ने ऋग्वेद की रचना की, जिसे मानव जाती का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। ऋग्वेद द्वारा जिस काल का विवरण प्राप्त होता है उसे ऋग्वैदिक काल कहा जाता है। ऋग्वेद भारत-यूरोपीय भाषाओँ का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण, आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहित हैं। डॉ. जैकोबी के अनुसार आर्यो ने भारत में कई बार आक्रमण किया और उनकी एक से अधिक शाखाएं भारत में आयी। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे सम्बद्ध थे। ऋग्वेद में आर्यो के जिन पांच कबीलों का उल्लेख है उनमें- पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्म प्रमुख थे। ये पंचयन के नाम से जाने जाते थे।

भारत में उन्होंने सर्वप्रथम सप्त सैन्धव प्रदेश में बसना प्रारम्भ किया। इस प्रदेश में बहने वाली सात नदियों का ज़िक्र हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलुज) विपशा (व्यास), परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम), अस्किनी (चिनाब) आदि। कुछ अफ़ग़ानिस्तान की नदियों का ज़िक्र भी हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं- कुभा (काबुल नदी), क्रुभु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) आदि।ऋग्वेद में हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। हिमालय की एक चोटी को मूजदन्त कहा गया है जो सोम के लिए प्रसिद्व थी। इस प्रकार आर्य हिमालय से परिचत थे। आर्यों ने अगले पड़ाव के रूप में कुरूक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर क़ब्ज़ा कर उस क्षेत्र का नाम 'ब्रह्मवर्त' (आर्यावर्त) रखा। ब्रह्मवर्त से आगे बढ़कर आर्यो ने गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके नजदीक के क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर उस क्षेत्र का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा। इसके बाद हिमालय एवं विन्ध्यांचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर उस क्षेत्र का नाम 'मध्य प्रदेश' रखा। अन्त में बंगाल एवं बिहार के दक्षिण एवं पूर्वी भागों पर क़ब्ज़ा कर समूचे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया, कालान्तर में इस क्षेत्र का नाम 'आर्यावत' रखा गया। मनुस्मृति में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ब्रह्मवर्त पुकारा गया।

Friday, April 27, 2018

सिंधु घाटी सभ्यता

भारत के इतिहास को अगर विश्व के इतिहास के महान अध्यायों में से एक कहा जाए तो इसे अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता। इसका वर्णन करते हुए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने कहा था, ‘‘विरोधाभासों से भरा लेकिन मजबूत अदृश्य धागों से बंधा’’। भारतीय इतिहास की विशेषता है कि वो खुद को तलाशने की सतत् प्रक्रिया में लगा रहता है और लगातार बढ़ता रहता है, इसलिए इसे एक बार में समझने की कोशिश करने वालों को ये मायावी लगता है।

भारत में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न अब तक मिले हैं, वे 4,00,000 ई. पू. और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के संधिकाल के हैं और वे इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि उस समय पत्थर के उपकरण काम में लाए जाते थे। जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं। इसके पश्चात् एक लम्बे अरसे तक विकास मन्द गति से होता रहा, जिसमें अन्तिम समय में जाकर तीव्रता आई और उसकी परिणति 2300 ई. पू. के लगभग सिन्धु घाटी की हड़प्पा संस्कृति के रूप में हुई।

पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित 'माण्टगोमरी ज़िले' में रावी नदी के बायें तट पर यह पुरास्थल है। हड़प्पा में ध्वंशावशेषों के विषय में सबसे पहले जानकारी 1826 ई. में 'चार्ल्स मैन्सर्न' ने दी। 1856 ई. में 'ब्रण्टन बन्धुओं' ने हड़प्पा के पुरातात्विक महत्त्व को स्पष्ट किया।
'जॉन मार्शल' के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने इस स्थल का उत्खनन कार्य प्रारम्भ करवाया। 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने हड़प्पा के पश्चिमी दुर्ग टीले की सुरक्षा का प्राचीर का स्वरूप ज्ञात करने के लिए यहाँ उत्खनन करवाया। यह नगर क़रीब 5 कि.मी. के क्षेत्र में बसा हुआ है। हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को 'नगर टीला' तथा पश्चिमी टीले को 'दुर्ग टीला' के नाम से सम्बोधित किया गया।


सिन्ध  में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष

सिंधु घाटी सभ्यता में स्थित एक कुआँ और स्नान घर

"भारत का नेपोलियन" - समुद्रगुप्त

समुद्रगुप्त (राज्य 335-376 ई.) गुप्त राजवंश का चौथा राजा और चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तरधिकरी था। चन्द्रगुप्त के अनेक पुत्र थे पर गुण और वीरत...